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मुंबई, 10 फरवरी। महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी, मुंबई द्वारा “सामाजिक चेतना जगाते राष्ट्र, महाराष्ट्र के संत कवियों के प्रखर स्वर” विषय पर एक दिवसीय साहित्य संगोष्ठी का आयोजन किया गया। इस गरिमापूर्ण संगोष्ठी में विभिन्न वक्ताओं ने इस बात पर पूर्ण सहमति जताई कि राष्ट्र एवं महाराष्ट्र के संतों ने हमारे समाज में अज्ञान, संकीर्णता और जाति भेद का सदैव विरोध किया।
यह एक दिवसीय संगोष्ठी रविवार, 9 फरवरी, 2025 को अकोला के राधाकिशन लक्ष्मीनारायण तोषनीवाल विज्ञान महाविद्यालय के सभागार में महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी के कार्यकारी सदस्य श्याम शर्मा के संयोजन में सफलता पूर्वक आयोजित की गई। इस संगोष्ठी के चर्चा सत्र के उद्घाटक प्रा. नारायण कुलकर्णी कवठेकर सहित प्रत्येक वक्ता का यही मंतव्य रहा कि हमारी संत परम्परा ने कभी एक-दूसरे के प्रति जाति भेद नहीं किया तथा वे एक- दूसरे को श्रेष्ठ मानकर उनका सम्मान करते थे। विभिन्न वक्ताओं ने कहा कि संत केवल संत होते हैं, उनमें कोई भेद नहीं हो सकता। संत परम्परा अनादि काल से अस्तित्व में है।
मराठी बहुल प्रांत महाराष्ट्र के भगवान विठ्ठल मूलतः महाराष्ट्र से नहीं बल्कि कर्नाटक से हैं, लेकिन इससे अधिक बड़ा सत्य यह है वे पूरे ब्रह्मांड के हैं। गोरखनाथ एवं तिरुविल्लूवर की संत परम्परा भी इसी प्रकार जाति, धर्म, भाषा और प्रांत से कहीं ऊपर है। संगोष्ठी के स्वागताध्यक्ष बीजीई सोसायटी के अध्यक्ष एडवोकेट मोतीसिंह मोहता रहे। विशेष अतिथि एवं इस विषय के मर्मज्ञ सुप्रसिद्ध साहित्यकार एवं गीतकार डॉ. रामप्रकाश वर्मा ने कहा कि तिरुविल्लुवर का लेखन कार्य और शंकरदेव जैसे महान संत साहित्यकारों का सामाजिक चेतना कार्य हिंदी के तुलसी, मीरा एवं कबीर की तरह ही हमारी कीमती धरोहर है। महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी के कार्यकारी सदस्य डॉ. प्रमोद शुक्ल ने तुलसी और कबीर की अनेक रचनाओं का उदाहरण देते हुए कहा कि उनका साहित्य कितना निर्भय और यथार्थवादी था ?
संत परम्परा के अभ्यासक डॉ. किरण वाघमारे ने चक्रधर स्वामी के उल्लेखनीय समाज सुधारवादी कार्यों से श्रोताओं को अवगत करवाया। लेखक और पत्रकार डॉ. शैलेंद्र दुबे ने कुशल मंच संचालन किया। संगोष्ठी का शुभारम्भ प्रा. नाना भड़के द्वारा गाये गये महाराष्ट्र गीत के साथ हुआ। सुष्मिता तुषार शर्मा ने गणेश वंदना प्रस्तुत की। संगोष्ठी की प्रस्तावना अकादमी के कार्यकारी सदस्य श्याम प. शर्मा ने प्रस्तुत की। संगोष्ठी के प्रथम सत्र का संचालन कृष्णकुमार शर्मा एवं द्वितीय सत्र का संचालन डॉ. शैलेन्द्र दुबे ने किया। मंच पर मौजूद गणमान्य अतिथियों को पुस्तकें और शॉल देकर सम्मानित किया गया। एडवोकेट मोतीसिंह मोहता ने अपने विचार व्यक्त करते हुए विदर्भ के संत तुकाडोजी महाराज, संत गाडगे बाबा, मराठी संत तुकाराम महाराज, संत नामदेव और संत ज्ञानेश्वर की सामाजिक चेतना पर प्रकाश डाला। डॉ. शैलेंद्र दुबे ने श्रोताओं को गुरु नानक और संत दादू दयाल की सीख से अवगत करवाया।
इस अवसर पर महेश पाण्डेय, प्रा. शारदा बियाणी, प्रा. तसनीम वोरा, प्राचार्य भडांगे, अनुराग मिश्र, डॉ. राजेश्वर बुंदेले, प्रा. मोनिष चौबे, डॉ. सरलता वर्मा, दर्शन लहरिया, डॉ. निशाली पंचगाम, सविता तापड़िया, प्रा. सारिका अग्रवाल, प्रा. अभिलाष बाजपेयी, श्री अमरावतीकर, गुजराती साहित्य अकादमी के विजय जानी, दिनेश शुक्ल, सिद्धार्थ शर्मा, तुषार शर्मा, सिंधी साहित्य अकादमी के डॉ. सुरेश लालवानी, डाॅ. सुरेश केसवानी, टुली जीवतरामानी, डॉ. सत्यनारायण बाहेती, डॉ. आनंद चतुर्वेदी, प्रा. धीरज सिंह ठाकुर, अभिषेक जैन, हितेश सोनी, सुहास देशमुख, सीमाताई रोठे, डाॅ. कोमल श्रीवास, शालिनी पूर्णये, नीमा झुनझुनवाला, मोहिनी मोडक, प्रा.कालीदास लाटा, प्रबोध देशपांडे, कपिल रावदेव, शौकत अली मीर, श्याम सुनारीवाल आदि सहित बड़ी संख्या में साहित्य प्रेमी उपस्थित रहे। संगोष्ठी का समापन राष्ट्रगान के साथ हुआ।
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